Eklavya Story in Hindi | एकलव्य के जीवन की पूरी कहानी

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Eklavya Story in Hindi | एकलव्य के जीवन की पूरी कहानी

Eklavya Story in Hindi: दोस्तों आज हम आपको महाभारत के एक ऐसे महान धनुर्धर के बारे में बताने वाले हैं। जिसके बारे में बहुत कम ही चर्चा होती है। लेकिन वह धनुर्धर अपनी गुरु भक्ति और अपने बलिदान के लिए हमेशा याद रखा जाएगा उस धनुर्धर का नाम है एकलव्य। जिसके बारे में यह कहा जाता है कि वह अर्जुन से भी श्रेष्ठ धनुर्धर था। लेकिन गुरु द्रोणाचार्य के गुरु दक्षिणा मांगने के कारण वह दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनने से रह गया। इस लेख में हमने विस्तार से एकलव्य के जीवन की सम्पूर्ण कहानी जन्म से मृत्यु तक के बारे में बताया है।

एकलव्य के पिता हिरण्यधनु थे। जो प्रयागराज के निकट श्रृंगवेरपुर नामक राज्य के राजा थे। वह निशांत जाति से संबंध रखते थे। जिसको द्वापर युग में शुद्र जाति माना जाता था। बचपन में एकलव्य का नाम अभिधुम्न था। जब अभिधुम्न की गुरुकुल की शिक्षा शुरू हुई तो गुरु ने अभिधुम्न की एकाग्रता और निष्ठा को देखकर उसका नाम एकलव्य रख दिया।

गुरुकुल में पुलक मुनि ने एकलव्य की धनुर्विद्या को लेकर रुचि देखी तो वह एकलव्य के पिता हिरण्यधनु पास गए और उनसे कहा कि आपके पुत्र में एक श्रेष्ठ धनुर्धारी बनने के सभी गुण मौजूद है। आपको इसकी धनुर्विद्या की शिक्षा किसी अच्छे गुरु से करवानी चाहिए।

इसके बाद हिरण्यधनु एकलव्य को लेकर गुरु द्रोणाचार्य के पास गए लेकिन गुरु द्रोणाचार्य ने यह कहकर एकलव्य को शिक्षा देने से मना कर दिया कि वह केवल राजकुल के बच्चों को ही शिक्षा देते हैं। इसके बाद एकलव्य और उसके पिता वहां से चले आए। लेकिन एकलव्य की धनुर्विद्या को लेकर रुचि अभी भी कम नहीं हुई थी।

वह मन ही मन गुरु द्रोणाचार्य को अपना गुरु मान चूका था। इसलिए उसने गुरु द्रोणाचार्य के आश्रम के पास के जंगल में गुरु द्रोणाचार्य की एक प्रतिमा बनाई और उसी प्रतिमा के सामने धनुर्विद्या का अभ्यास करना शुरू कर दिया। कुछ समय के बाद ही एकलव्य धनुर्विद्या में पारंगत हो गया।

एक दिन गुरु द्रोणाचार्य पांडव और कौरवों को शिक्षा दे रहे थे। उनके साथ एक कुत्ता भी था जो चलता हुआ उस जंगल में पहुंच गया। उस कुत्ते ने जंगल में एकलव्य को देखा। कुत्ता एकलव्य को देखकर भोकने लगा। एकलव्य कुत्ते को कोई क्षति नहीं पहुंचाना चाहता था लेकिन कुत्ते का भोकना बंद करना चाहता था।

इसलिए एकलव्य ने एक बाण चलाकर कुत्ते का मुंह बाणो से भर दिया। जिससे कुत्ते का भोकना बंद हो गया। कुत्ता उसी अवस्था में गुरु द्रोणाचार्य के पास गया। जब गुरु द्रोणाचार्य, पांडव और कौरवों ने कुत्ते को देखा तो वह अचंभित रह गए कि किस धनुर्धारी ने कुत्ते का मुंह बाणो से बंद कर दिया और इसको कोई नुक़सान भी नहीं पहुँचाया।

अर्जुन गुरु द्रोणाचार्य से बोला कि गुरुदेव इस तरह कुत्ते का मुँह बंद करने की शिक्षा तो मैं भी नहीं जानता। इसके बाद गुरु द्रोणाचार्य, पांडव और कौरवों के साथ उस धनुर्धारी को ढूंढने लगे। जंगल में जाने पर उन्हें एकलव्य दिखाई दिया। एकलव्य से पूछने पर उसने स्वीकार किया कि उसी ने कुत्ते का मुँह बाणो से बंद किया था।

द्रोणाचार्य ने एकलव्य से पूछा कि तुम्हारा गुरु कौन है। एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य को उनकी प्रतिमा को दिखाते हुए कहां की आप ही मेरे है। मैंने आप की प्रतिमा की सामने ही धनुर्विद्या की शिक्षा का अभ्यास किया है। गुरु द्रोणाचार्य एकलव्य की शिक्षा को देखकर हैरान थे।

उनको पता लग गया था की यदि एकलव्य इसी तरह धनुर्विद्या का अभ्यास करता रहा तो एक दिन वह दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बन जाएगा। जिससे मेरे द्वारा अर्जुन को दिया गया वचन गलत हो जाएगा। जिसमें मैंने अर्जुन को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने को कहा है।

इसलिए गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य से कहा कि यदि तुम मुझे अपना गुरु मानते हो तो मुझे तुमसे एक गुरु दक्षिणा चाहिए। एकलव्य बिना किसी शंका के गुरु द्रोणाचार्य को गुरु दक्षिणा देने के लिए तैयार हो गया। गुरु द्रोणाचार्य ने गुरु दक्षिणा में एकलव्य से उसके सीधे हाथ का अंगूठा मांगा।

एकलव्य ने एक बार में अपना अंगूठा काटकर गुरु द्रोणाचार्य को दे दिया। इसके बाद गुरु द्रोणाचार्य पांडवों और कौरवों को लेकर वहां से चले गए। एकलव्य इसके बाद अपने राज्य श्रृंगवेरपुर चला गया।

एकलव्य अपनी बाकि उंगलियों की सहायता से ही धनुष बाण चलाने लगा। कुछ समय बाद अपने पिता हिरयणधनु की मृत्यु के पश्चात वह श्रृंगवेरपुर का राजा बना। वह धीरे धीरे अपनी राज्य की सीमा का विस्तार करने लगा। इसी विस्तार के क्रम में उसकी मित्रता मगध नरेश जरासंध से हो गई।

जरासंध श्री कृष्ण का परम शत्रु था। एक बार एकलव्य जरासंध के साथ द्वारका के विरुद्ध युद्ध करने चला गया। जहां उसने कुछ ही समय में यादव सेना का नाश कर दिया। इसके बाद श्री कृष्ण आए उन्होंने देखा कि एकलव्य केवल चार उंगलियों की सहायता से धनुष बाण चलाकर यादव सेना को मार चुका है।

श्री कृष्ण यह जानते थे कि जब महाभारत का युद्ध होगा तो एकलव्य पांडवों के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। इसलिए वह एकलव्य से युद्ध करने लगे। काफी देर युद्ध करने के बाद श्री कृष्ण के हाथों एकलव्य वीरगति को प्राप्त हुआ। इस तरह श्रेष्ठ गुरु भक्त एकलव्य की जीवन लीला समाप्त हो गई।

Final words:

हम उम्मीद करते हैं कि आपको हमारे द्वारा ऊपर दी गई जानकारी Eklavya Story in Hindi पसंद आई होगी। आप इस जानकारी को अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ शेयर कर सकते हैं। जिससे उन्हें भी महाभारत के इस पात्र के बारे में जानने का मौका मिल सके। जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। आप अपनी राय कमेंट करके हमें बता सकते हैं कि अर्जुन और एकलव्य में कौन श्रेष्ठ धनुर्धारी था।

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2 thoughts on “Eklavya Story in Hindi | एकलव्य के जीवन की पूरी कहानी”

  1. मित्र निषाद जाती को कभी भी शुद्र माना गया महाराज शांतनु कि पत्नी अर्थात महाराज पांडु की पितामही महारानी सत्यवती एक निषाद कन्या थी।

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